तिश्नगी

तिश्नगी प्रीत है, रीत है, गीत है
तिश्नगी प्यास है, हार है, जीत है

Monday 26 June 2017

कतरा-कतरा शायरी !!

नए किरदार गढ़ने के नशे में
मैं बेकिरदार होकर रह गया हूँ !!

किये थे दस्तख़त पलकों पे तेरी
तू अपने साथ मुझको ले गयी है !!

मैं तेरे शहर में आया भी तो बादल जैसे
वक़्त मजबूर न यूँ करता तो बरखा होती !!

उम्रभर हम दुश्मनी में इस सलीके से मिले
दुश्मनी टूटी तो अपनी दोस्ती के नाम पर
हमने पटरी छोड़ दी और तुमने फाँसी तोड़ दी
ख़ुदकुशी को मार डाला ज़िन्दगी के नाम पर !!

© आशीष नैथानी !!

कुछ अशआर !!

मैं अभी अपना ही किरदार न समझा ढंग से
मैं किसी और का किरदार निभाऊँ कैसे !!

सारी रात ख़ुमारी थी
चाँद की पहरेदारी थी
फ़िर नींदों ने ख़्वाबों में
तेरी शक्ल उतारी थी

बहुत नाजुक सा रिश्ता है हमारा
ये कट सकता है मक्खन की छुरी से !!

बहुत आसान समझा था मुहब्बत
मगर आसान तो कुछ भी नहीं है !!

यहाँ न सुब्ह की रौनक, न साँझ की खुशबू
मैं अपनी रूह पहाड़ों में छोड़ आया हूँ !!

© आशीष नैथानी !!

तुम्हारे होने का अहसास

रात अब कभी ख़ामोश नहीं लगती
दिन नहीं करता बेचैन
जो तुम्हारे साथ होने का अहसास साथ हो

अब किसी गीत को सुनते हुए
उसके बोलों की तरफ़ ध्यान नहीं जाता
बल्कि एक पूरी फ़िल्म दिमाग में चलने लगती है
महसूस होता है कि तुम्हारे लिए ही लिखे गये हैं सारे गीत
सारे शब्द तुम्हारा ज़िक्र करने के लिए बने हैं
धुनें हैं कि तुम्हारी कुछ मासूम सी हरकतें

अचानक आसमान कुछ और नीला हो गया है
तारों का प्रकाश बढ़ गया है कई सौ गुना
बर्फ़ अब भला और कितनी सफ़ेद होना चाहती है
और चाँद है कि महीने के हर दिन पूरा निकलना चाह रहा है

शाखों ने सजा ली हैं हरी पत्तियाँ
भौरों ने याद कर लिए हैं नए गीत
तितलियों ने रँग दिए हैं पर कुछ और खूबसूरत रंगों से
और शहर से हो गया है इश्क़ सा कुछ

जनवरी अब वैसी सर्द नहीं रही
न रही बारिश में छाते की जरुरत अब
तुम्हारे होने के अहसास से,
मैं भी अब कहाँ पहले सा रह गया हूँ ।

© आशीष नैथानी !!

'हैदराबाद' कविता का एक टुकड़ा !!

पठारों पर उग आई हैं इमारतें
जैसे तुम्हारी उदासी पे
कभी-कभार मुस्कुराहट उभर आती है

पुराने शहर की कुछ पुरानी इमारतों पर
घास उग आई है,
और उग आई हैं
पंछियों के घोंसलों की सम्भावनाएँ भी

जीवन की उम्मीदों का इस तरह उगना
शहर की साँसों के लिए जरुरी है,
जैसे प्रेम हमारी साँसों के लिए |

© आशीष नैथानी !!

"रात" का एक टुकड़ा

रात न हो तो चाँद का अहसास न हो
न हो पूर्णिमा-अमावस का भेद
त्यौहारों का जाने क्या हो,
कविताओं का भी

रात न हो तो जुगनुओं की कहानियाँ न हों
तारों के अस्तित्व पर लग जाए प्रश्नचिह्न
और सुबह के वजूद पर भी !!

© आशीष नैथानी !!